Wednesday, January 22, 2020

सैफ़ अली ख़ान के लिए 'लालच' इतना ज़रूरी क्यों?

सितंबर 2018 में नवाज़ुद्दीन सिद्दीक़ी नंदिता दास की फ़िल्म 'मंटो' में सआदत हसन मंटो बने और ठीक पाँच महीने बाद बाल ठाकरे बने.

नवाज़ुद्दीन कह सकते हैं कि एक कलाकार हर भूमिका निभाने के लिए आज़ाद होता है और उसके अभिनय में किसी किरदार को लेकर कोई दीवार नहीं होनी चाहिए.

अभिनेता मोहम्मद ज़ीशान अयूब कहते हैं कि मंटो उनके पसंदीदा किरदार हैं लेकिन उन्हें बाल ठाकरे का रोल मिलता, तो वो स्क्रिप्ट पढ़ने के बाद ही कोई फ़ैसला लेते.

ज़ीशान कहते हैं, "बाल ठाकरे का किरदार निभाने में कोई दिक़्क़त नहीं है लेकिन मैं प्रोपेगेंडा नहीं करूंगा. मैं हिटलर को हिटलर दिखाने वाला किरदार करूंगा लेकिन राष्ट्रभक्त दिखाने वाला नहीं करूंगा."

वरिष्ठ फ़िल्म पत्रकार ज़िया उस सलाम कहते हैं कि कलाकार के किरदार में विविधता होनी चाहिए लेकिन मंटो की बात करने वाला कलाकार अचानक बाल ठाकरे की प्रोपेगेंडा फ़िल्म में काम कैसे कर सकता है? सलाम कहते हैं कि ये लालच और डर का तर्क है. क्या यही लालच सैफ़ अली ख़ान के भीतर भी हावी था?

'तानाजी द अनंसग वॉरियर' फ़िल्म में उदयभान राठौर के किरदार से सैफ़ अली ख़ान सहमत नहीं थे लेकिन उन्होंने ये रोल निभाया. सैफ़ अली ख़ान का कहना है कि अगली बार से वो ऐसे किरदार का अभिनय करने से पहले सोचेंगे.

उन्हें लगता है कि तानाजी में पॉलिटिकल नैरेटिव को बदला गया है और ये बहुत ही ख़तरनाक है. सैफ़ ने कहा कि उन्हें पता था कि फ़िल्म में इतिहास से छेड़छाड़ है.

जब सैफ़ को इतना कुछ पता था तब भी उन्होंने ये रोल क्यों किया? सैफ़ ने इसका जवाब दिया है कि इसके बावजूद उन्हें उदयभान राठौर का किरदार आकर्षक लगा.

सैफ़ के इन तर्कों को मशहूर फ़िल्मकार मुज़फ़्फ़र अली बेकार बताते हैं. वो कहते हैं, "जब आपको पता था कि फ़िल्म का पॉलिटिकल नैरेटिव बदला गया है तब भी आपको यह किरदार आकर्षक कैसे लगा? ये कोई तर्क नहीं है. आप या तो ऐसे रोल मत कीजिए या फिर कीजिए. पता होते हुए ग़लत करने का क्या मतलब है?"

तानाजी फ़िल्म में मुग़ल शासकों को विदेशी और हिंसक बताया गया है जबकि मराठों का महिमामंडन किया गया है.

उमराव जान जैसी फ़िल्में बनाने वाले निर्देशक मुज़फ़्फ़र अली कहते हैं, "मसला केवल तानाजी का ही नहीं है. आप पद्मावत देख लीजिए. इसमें तो अलाउद्दीन ख़िलजी को किसी चपरासी की तरह दिखाया है. अलाउद्दीन ख़िलजी मध्यकाल का एक शासक था और आप उसके किरदार को ऐतिहासिक रिसर्च के आधार पर ही दिखाएंगे न कि हिन्दू-मुस्लिम दुर्भावना के साथ. फ़िल्मों में संकीर्ण एजेंडे को लेकर काम किया जा रहा है. इतिहास के किरदारों के साथ आप खेल नहीं सकते."

क्या फ़िल्मकार भारत के मुसलमान किरदारों को विकृत बनाकर पेश करते हैं? जाने-माने इतिहासकार हरबंस मुखिया कहते हैं, "किसी भी शासक को हम धर्म के चश्मे से कैसे देख सकते है? अकबर के सबसे ख़ास राजा मान सिंह थे. औरंगज़ेब के ज़माने में राजा जसवंत सिंह और जय सिंह सबसे ख़ास रहे. मराठे भी भरे हुए थे. मध्यकाल में कोई मुस्लिम शासन नहीं था. मुसलमान शासक ज़रूर थे लेकिन उस शासन में हिन्दू भी निर्णायक पदों पर थे. फ़िल्में बाज़ारू हो सकती हैं लेकिन इनमें इतिहास को बाज़ारू नहीं बनाया जा सकता है."

आशुतोष गोवारिकर ने 2008 में जोधा-अकबर फ़िल्म बनाई थी. इस फ़िल्म में हिन्दू राजकुमारी और मुग़ल शासक अकबर की प्रेम कहानी है.

मध्यकाल के जाने-माने इतिहासकार हरबंस मुखिया कहते हैं, "अकबर के वक़्त में जोधा बाई नाम की कोई महिला नहीं थी. जहांगीर की एक पत्नी थी जिसका नाम जोधाबाई कहा जाता है. वो जोधपुर से थीं इसलिए जोधाबाई कहा जाता है. लेकिन अकबर की कोई पत्नी जोधाबाई नहीं थी. आशुतोष ने मशहूर इतिहासकार इरफ़ान हबीब से जाकर पूछा था और उन्होंने मना किया था लेकिन फिर भी फ़िल्म बनाई."

इतिहासकार अकबर की पाँच पत्नियां बताते हैं, जिनमें किसी का भी नाम जोधाबाई नहीं था. ये थीं- सलीमा सुल्तान, मरियम उद ज़मानी, रज़िया बेगम, क़ासिम बानू बेगम और बीबी दौलत शाद.

हरबंस मुखिया कहते हैं कि यह तर्क बहुत ही फ़र्ज़ी है कि जो चलता है वही दिखाया जाता है. वो कहते हैं, "दरअसल, जिसकी सरकार होती है और जिस तरह का राजनीतिक ध्रुवीकरण होता है, उस तरह की फ़िल्में बनती हैं. कांग्रेस की सरकार में हिन्दू-मुस्लिम प्रेम पर 'जोधा-अकबर' बनी और अभी की सरकार में उग्र राष्ट्रवाद और 'तानाजी' जैसी फ़िल्में बन रही हैं. फ़िल्मकार भी ताक में रहते हैं कि किस राजनीतिक पार्टी को कैसी फ़िल्में बनाकर ख़ुश करना है. आख़िर बीजेपी शासित राज्यों में तानाजी को टैक्स फ़्री क्यों किया गया?"

मुज़फ़्फ़र अली मानते हैं कि हिन्दी फ़िल्मों ने भारतीय जनमानस का इतिहासबोध बिगाड़ा है. इस बात से हरंबस मुखिया भी सहमत हैं. इन दोनों का कहना है कि इतिहास को अपने तरीक़े से पेश करने की ग़लती आपके उस डिस्क्लेमर से माफ़ नहीं हो जाता है कि इस फ़िल्म के सभी किरदार काल्पनिक हैं. मुखिया कहते हैं कि अगर सभी किरदार काल्पनिक हैं तो नाम भी काल्पनिक रखो.

जाने-माने फ़िल्मकार आनंद पटवर्धन को लगता है कि फ़िल्मकार मुसलमान किरदारों को बायस्ड होकर देखते हैं. वो कहते हैं, "पद्मावत फ़िल्म अलाउद्दीन ख़िलजी को हत्यारा, लंपट और दूसरे की पत्नी पर नज़र रखने वाला दिखाया गया है. फ़िल्मकार को इस बात से कोई मतलब नहीं है कि ख़िलजी का क्या योगदान था. ये बात सही है कि ख़िलजी ने अपने चाचा की हत्या कर सत्ता हासिल की थी लेकिन सम्राट अशोक ने भी अपने कई भाइयों को मारा था. क्या किसी ने फ़िल्म में सम्राट अशोक को हत्यारे की तरह दिखाया गया है? नहीं दिखाया है. हमारे फ़िल्मकारों का भी भारतीय समाज से वैज्ञानिक सोच ख़त्म करने में अहम योगदान दिया है."

मीनाक्षी जैन दिल्ली यूनिवर्सिटी में इतिहास की प्रोफ़ेसर हैं और उन्हें दक्षिणपंथी इतिहासकार के तौर पर देखा जाता है. वो कहती हैं, "ये बात बिल्कुल सही है कि अकबर की जोधाबाई नाम की कोई रानी नहीं थी. लेकिन हम अलाउद्दीन ख़िलजी से सम्राट अशोक की तुलना नहीं कर सकते हैं. अशोक ने तो बाद में हिंसा का रास्ता छोड़ दिया था. उन्होंने अपनी ग़लती मान ली थी. अलाउद्दीन ख़िलजी के जीवन ऐसा कोई परिवर्तन नहीं आया."

आनंद पटवर्धन को लगता है कि अभिनेताओं को केवल लालच पूरा करने के लिए काम नहीं करना चाहिए. वो कहते हैं, "पिछले साल विवेक अग्निहोत्री की फ़िल्म 'द ताशकंद फ़ाइल्स' में नसीरुद्दीन शाह ने काम किया. विवेक अग्निहोत्री का ऐसी फ़िल्में बनाना तो समझ में आता है लेकिन ऐसी प्रोपेगेंडा फ़िल्म में नसीर का काम करना चौंकाता है. हालांकि अब लगता है कि बदले हालात में नसीर और सैफ़ जैसे अभिनेता भी ख़ुद को बदलेंगे."

सैफ़ अली ख़ान और अजय देवगन अभिनीत फ़िल्म 'तानाजी द अनंसग वॉरियर' करोड़ों में कमाई कर रही है. इतनी कमाई करने के बाद सैफ़ अली ख़ान ने कहा है कि वो अगली बार से ऐसे किरदारों को चुनते वक़्त सतर्क रहेंगे.

साल 2014 में जब कथित लव-जिहाद का मामला उछाला जा रहा था तब सैफ़ अली ख़ान ने इंडियन एक्सप्रेस में आर्टिकल लिखा और कहा था कि अंतर्धामिक विवाह जिहाद नहीं होता है.

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